जब कभी
मेरे मन को
चिड़ियों के से पर मिले
जब कभी
कल्पनाओं के अनंत आकाश में
विचरते हुए
छू लेना चाहता हूँ
नभ की ऊचाईयों को
नकारकर –
ज़िन्दगी की कटीली सच्चाईयों को
सहसा,
मासूमों की अनवरत चीखें
ला पटकती हैं
फिर उसी कठोर धरातल पर
जहाँ
किसी अनुष्ठान की तरह
दुधमुहें का क़त्ल
अभी-अभी
किसी नराधम ने किया
इस पूरी प्रक्रिया से
गुज़रते हुए
महसूस करता हूँ मैं
ख़ुद के हाथों; अधरों पर
खून की अदृश्य सुर्खी
घबराकर भागता हूँ निरंतर
किसी एकांत स्थान पर,
पर हर स्थान पर
मुझसे पहले पहुँच जाती हैं
चीखों की फौजें
और दिमाग व मन को
जकड़ लेतीं है.
स्वयं से पलायन की
प्रसव पीड़ा के बीच
यक्ष प्रश्नों की बौछारें आती हैं –
यह जंगल संस्कृति किसकी है?
क्या तुम वाकई निर्दोष हो?
और फिर आज का युधिष्ठिर
स्वयं को मानव होने का
प्रमाण नहीं दे पाता है
निरुत्तरित रहकर चूक जाता है
आस्था; विश्वास; भ्रातृत्व व प्रेम को
पुनर्जीवित करने से
हाँ! हाँ! मैं दोषी हूँ
तमाम हत्याओं के लिए
ऐसे में जबकि
निर्दोषों; अबोधों की बलि चढ़ रही है
एकांत की तलाश
दोषी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है
तभी तो-
मेरे हाथ खून से रंगे हैं
हाँ! हाँ! मैं कातिल हूँ
जी हाँ! मैं कातिलहूँ
8 टिप्पणियां:
एक अच्छी कविता निकली है आपकी कलम से....
sarahniya abhivyakti, verma ji , badhai sweekaren.
बहुत ही गंभीर अभिव्यक्ती ।
आप सभी को प्रेरक टिप्प्णियो के लिये धन्यवाद
bahut khub. achchha likha hai.
एक गंभीर गहन रचना, बधाई.
बहुत ही सुन्दर गहन इस भावाभिव्यक्ति ने मुग्ध कर दिया .....वाह !
ऐसे ही लिखते रहें...शुभकामनायें.
मुबारक हो
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