मंगलवार, 26 मई 2009

जी हाँ! मैं कातिलहूँ ....













जब कभी
मेरे मन को
चिड़ियों के से पर मिले
जब कभी
कल्पनाओं के अनंत आकाश में
विचरते हुए
छू लेना चाहता हूँ
नभ की ऊचाईयों को
नकारकर –
ज़िन्दगी की कटीली सच्चाईयों को
सहसा,
मासूमों की अनवरत चीखें
ला पटकती हैं
फिर उसी कठोर धरातल पर
जहाँ
किसी अनुष्ठान की तरह
दुधमुहें का क़त्ल
अभी-अभी
किसी नराधम ने किया

इस पूरी प्रक्रिया से
गुज़रते हुए
महसूस करता हूँ मैं
ख़ुद के हाथों; अधरों पर
खून की अदृश्य सुर्खी
घबराकर भागता हूँ निरंतर
किसी एकांत स्थान पर,
पर हर स्थान पर
मुझसे पहले पहुँच जाती हैं
चीखों की फौजें
और दिमाग व मन को
जकड़ लेतीं है.
स्वयं से पलायन की
प्रसव पीड़ा के बीच
यक्ष प्रश्नों की बौछारें आती हैं –
यह जंगल संस्कृति किसकी है?
क्या तुम वाकई निर्दोष हो?

और फिर आज का युधिष्ठिर
स्वयं को मानव होने का
प्रमाण नहीं दे पाता है
निरुत्तरित रहकर चूक जाता है
आस्था; विश्वास; भ्रातृत्व व प्रेम को
पुनर्जीवित करने से

हाँ! हाँ! मैं दोषी हूँ
तमाम हत्याओं के लिए
ऐसे में जबकि
निर्दोषों; अबोधों की बलि चढ़ रही है
एकांत की तलाश
दोषी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है
तभी तो-
मेरे हाथ खून से रंगे हैं

हाँ! हाँ! मैं कातिल हूँ
जी हाँ! मैं कातिलहूँ

8 टिप्‍पणियां:

लोकेन्द्र विक्रम सिंह ने कहा…

एक अच्छी कविता निकली है आपकी कलम से....

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

sarahniya abhivyakti, verma ji , badhai sweekaren.

Asha Joglekar ने कहा…

बहुत ही गंभीर अभिव्यक्ती ।

M Verma ने कहा…

आप सभी को प्रेरक टिप्प्णियो के लिये धन्यवाद

बेनामी ने कहा…

bahut khub. achchha likha hai.

Udan Tashtari ने कहा…

एक गंभीर गहन रचना, बधाई.

रंजना ने कहा…

बहुत ही सुन्दर गहन इस भावाभिव्यक्ति ने मुग्ध कर दिया .....वाह !
ऐसे ही लिखते रहें...शुभकामनायें.

razia ने कहा…

मुबारक हो