शहर के उस कोने से
शहर के इस कोने तक,
सूरज का उगकर
वज़ूद खोने तक,
बच्चे के रोने से
चुप होने तक,
भागते हुए-
कई-कई रातें
जागते हुए-
उपलब्धियों के आकड़े
डायरी के पन्ने में सहेजकर
नाचते हुए-
जब ठहरो तो
निगाह डालना ख़ुद पर
हर उपलब्धि के साथ
क्या तुम्हारे
हाथ; पाव; आँख; नाक
यथारूप कायम है?
क्या तुम्हे नहीं दिखता
तुम्हारा दिमाग
किसी और के पंजे में?
खंड-खंड ख़ुद को सहेजत्ते हुए
क्या तुम नहीं फंसते जाते हो
सुनियोजित शिकंजे में?
क्या पाए
सुबह जागने से
रात को सोने तक?
ख़ुद कितना डूब गए
मछली को पानी में
डुबोने तक
.
शहर के उस कोने से
इस कोने तक --
4 टिप्पणियां:
आज के जीवन में किसी को भी इतनी महत्वपूर्ण बात सोचने और अपने स्वस्थ शरीर के लिए कुछ करने की फुर्सत नहीं है...और जब समय बीत जाता है तो सिवाय पछतावे और कष्ट के कुछ नहीं बचता.....
खुद कितना डूब गए ------------। मन को छू गयी ये पंक्तियाँ। वाह वर्मा जी।
आत्म-निरीक्षण संग में शब्दों का गठजोड़।
भाव प्रबल दिखते यहाँ रचना बनी बेजोड़।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत ही अच्छी लगी आपकी यह यथार्थ दिखाती हुई कविता।
घुघूती बासूती
aap ki kavita aakho ke leye aakarshan hai par aapke kathin shabd es methe yatara mai speed breaker ka kam karte hai...
kavita aap ke kalpna ke gehrai ko dekha rahe hai....
sundar rachna...
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