शुक्रवार, 19 जून 2009

नदी नहा कर पोछ रही बदन --- (शब्द चित्र)


मुहअंधेरे- भोर में,

नदी नहा कर

पोंछ रही थी बदन

सूरज की आँख खुल गयी

नज़ारा देख शर्म से लाल हुआ

बढ़ने लगी तपन

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हवाएं

सरसराते हुए

चुपके से

शाखों को झुला रहीं थी झूला

सूरज ने देख लिया

हो रहा है --

आगबबूला

10 टिप्‍पणियां:

Razia ने कहा…

kamal ke shabd chitra

vandana gupta ने कहा…

lajawaab soch......bahut hi gahnta.

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

behatareen shabd chutra , vermaji, badhai sweekaren.

ओम आर्य ने कहा…

waah ....waah ......waah
aapki lekhani ko salam.......bahut thode me ......bahut hi sundar chitran

प्रकाश पाखी ने कहा…

बहुत सुन्दर और लाजवाब कविता...
बहुत पसंद आई...
दोनों रचनाएं शब्दों से चित्र उकेर रहीं है...

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर शब्द चित्र खीचा है।बधाई।

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

पहली बार आया आपके ब्लोग पर, अच्छा लगा/
आप्की रचनाये अर्थ पूर्ण है/ कम शब्दो मे सार्थक बात/

विवेक रस्तोगी ने कहा…

वाह शर्म से लाल हुआ ।
मजा आ गया।

Himanshu Pandey ने कहा…

प्रकृति और मानवीय भाव-व्यापार एकमेक हो गये । सुन्दर अभिव्यक्ति । धन्यवाद ।

वर्तिका ने कहा…

waah! kamaal ki shanikayein hai sir...