सरसों सरीखे -
अतिसूक्ष्म
कुछ
एहसास
बिखर
गये थे उस दिन
तुम्हारी
देहरी के इर्द-गिर्द,
मैं
जानता हूँ
ये
तुम्हें नज़र नहीं आयेंगे
ये खो
जायेंगे
मिट्टी
की परतों के बीच.
पर
मुझे यकीन है
अनुकूल
अवसर पाकर
ये
पल्लवित होंगे;
ये उगेंगे अपनी हरीतिमा फैलाने
सोहबत
में आकर
हो
रही मूसलाधार बारिश की.
तुम
इन्हें भी बेशक
समूल
नष्ट कर देना,
पर ये
फिर उगेंगे
उगते
ही रहेंगे तब तक
जब तक
तुम
इनकी
जड़ों को भी
किसी
धारदार हथियार से
नष्ट
नहीं कर दोगी.
आते
जाते मैं
इनके
हश्र को देखूँगा
और
एक
दिन
खुद
ही समेट लूँगा
इन्हें
इनकी जड़ों समेत
खुद
ही ...
28 टिप्पणियां:
आते जाते मैं
इनके हश्र को देखूँगा
और
एक दिन
खुद ही समेट लूँगा
इन्हें इनकी जड़ों समेत
खुद ही ...
Waah, kyaa khoob kahaa verma sahaab !
भावनाओं को बहुत कोमल शब्दों में सहेजा है ...जड़ों के साथ समेटने की बात ..सुन्दर अभिव्यक्ति ..
सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई
अनुकूल अवसर पाकर उगते रहेंगे ...
फिर -फिर पल्लवित होंगे ...
चिर युवा होते हैं एहसास भी ...!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
बहुत अच्छी और भावपूर्ण रचना .
बहुत अच्छी लगी यह प्रस्तुति....
भावनाओं को इतने सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया है कि क्या कहूँ। बधाई स्वीकारें।
ओह! अहसासों को एक अलग ही अह्सास दे दिया…………बेहद कोमल भावनायें।
वर्मा जी...बहुत ढूढ़ते ढूढ़ते यहाँ तक पहुँचा ...आप की रचनाओं को बहुत दिनों से मिस कर रहा था ..थोड़ी व्यस्तता थी..पर अब आ गया ...एक बेहतरीन छ्न्द-मुक्त रचना...सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई..
kitni sunder rachna...
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (27/9/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
तुम इन्हें भी बेशक समूल नष्ट कर देना, पर ये फिर उगेंगे उगते ही रहेंगे तब तक जब तक तुम इनकी जड़ों को भी किसी धारदार हथियार से नष्ट नहीं कर दोगी. ......
बहुत सहज भावपूर्ण अभिव्यक्ति....क्या संभव है की अहसासों के जड़ से उखाड़ सकें?....बहुत सुन्दर...आभार....
कमाल की कविदृष्टि है आपकी ... सरसों के दानों से आपने पहाड़ जैसे भावों को बहुत कोमल शब्द दिए हैं ।
bahut sunder kavita.
और एक दिन खुद ही समेट लूँगा
इन्हें इनकी जड़ों समेत खुद ही ...
सुंदर अभिव्यक्ति...............
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 28 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
अहसास विखर गये वे इतने सूक्ष्म है कि दिखाई नहीं देंगे लंेकिन अनुकूलता मिलने पर फिर अपना रंग दिखायेंगे ही ।मेरे उक्त अहसासों को तुम भले ही नष्ट करते रहना मगर यंे नष्ट होंगे नहीं और इन्हे वापस मुझे ही समेटना होगा ।एक अच्छी छायावादी रचना पढने को मिली ।धन्यवाद
sunder abhivyakti....
are kyun sametenge bhai ...jab itni jijivisha haiki bar bar uth khade hon to ..unhe hi thak haar kar aap ko sweekar karna pade aisa sochiye....bahut achhi lagi yah rachna aapki ...
सरसों का यह बिम्ब बेहद रोचक है ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
बिखर गये थे उस दिन
तुम्हारी देहरी के इर्द-गिर्द,
हमेशा की तरह अभिभूत करती रचना
बंधाई स्वीकारें
बहुत कोमल शब्दों और भावनाओं की प्रस्तुति....
सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई
आते जाते मैं
इनके हश्र को देखूँगा
और
एक दिन
खुद ही समेट लूँगा
इन्हें इनकी जड़ों समेत
खुद ही ...
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
बहुत सुन्दर
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सुन्दर अभिव्यक्ति!
regards,
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