शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

मुट्ठी में रेत .....

सम्बंधों से छिन गये हैं उनके आयाम
अनुबन्धों को रात-दिन कर रहे प्रणाम
विसंगतियों के हर तरफ
अंश पल रहे
बबूल सरीखे दिल में
दंश पल रहे
रक्तरंजित दिन हुआ, आदमखोर शाम
अनुबन्धों को रात-दिन कर रहे प्रणाम
घर के आंगन में
खंडहर निवास
किस्तों में रीत रहे
आस्था-विश्वास
नीम के पेड़ पर क्यू तलाशते हैं आम
अनुबन्धों को रात-दिन कर रहे प्रणाम
मुट्ठी में बन्द है
रेगिस्तानी रेत
उठ कर देखो तो
उजड़ गये खेत
देहरी पर ठिठका है जीजिविषा संग्राम

अनुबन्धों को रात-दिन कर रहे प्रणाम



17 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सम्बंधों से छिन गये हैं उनके आयाम

अनुबन्धों को रात-दिन कर रहे प्रणाम

संबंधों पर एक सार्थक रचना ...आज हर रिश्ता मुट्ठी से रेत के समान फिसलता स लगता है ...

बहुत संवेदनशील रचना .

shikha varshney ने कहा…

सम्बंधों से छिन गये हैं उनके आयाम

अनुबन्धों को रात-दिन कर रहे प्रणाम
बेहतरीन विश्लेषण करती रचना.

संगीता पुरी ने कहा…

देहरी पर ठिठका है जीजिविषा संग्राम

अनुबन्धों को रात-दिन कर रहे प्रणाम

बहुत बढिया अभिव्‍यक्ति !!

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

सटीक और शानदार रचना.

वाणी गीत ने कहा…

अनुबंधों को कर रहे प्रणाम ...
हो तो यही रहा है ...
मगर इसे बदलना भी हमें ही होगा ...
हम बदलेंगे , युग बदलेगा ...

वर्तमान समय को अच्छी तरह प्रदर्शित कर दिया है आपने कविता में ...
आभार ..!

Manish aka Manu Majaal ने कहा…

सभी है एक जैसे, किस पर उठाए उंगली,
सभी कहते, सबका मालिक एक राम !
सब भगवान् भरोसे ..
सबका मालिक राम,
हालत-ए-राम-राम ....

संवेंदंशील रचना, साथक व्यंग्य.. लिखते रहिये ...

Arvind Mishra ने कहा…

देहरी पर ठिठका है जीजिविषा संग्राम
जी हकीकत है ये -सशक्त रचना !

शरद कोकास ने कहा…

किस्तों में रीत रहे आस्था विश्वस यह पंक्तियाँ गहरा अर्थ लिये हैं ।

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

har para alag alag samasyaon ki padtaal kar raha hai .,..umda rachna hai verma ji

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

मेरे लिए आपकी आज की ये कविता बहुत कड़ी है भाई .... समझने के लिए कई बार सिर खुजाता रहा :)

vandana gupta ने कहा…

आज का सच कह दिया…………बेहतरीन रचना।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

बहुत सुंदर और शानदार रचना.........

Kailash Sharma ने कहा…

मुट्ठी में बन्द है

रेगिस्तानी रेत
.....
आज के सच को उजागर करती बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति...आभार...

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

घर के आंगन में
खंडहर निवास
किश्तों में रीत रहे
आस्था-विश्वास
कवि की अद्भुत कल्पनाशक्ति का जीवंत प्रमाण है, यह कविता
वर्मा जी, इस अप्रतिम कविता के लिए बधाई स्वीकार करें।

निर्मला कपिला ने कहा…

किस्तों में रीत रहे

आस्था-विश्वास

नीम के पेड़ पर क्यू तलाशते हैं आम

अनुबन्धों को रात-दिन कर रहे प्रणाम
bबिलकुल सही है आदमी ने जो बोया है वही तो काटना है। सुन्दर रचना। बधाई।

Udan Tashtari ने कहा…

सशक्त अभिव्यक्ति

mridula pradhan ने कहा…

bahut achcha likha hai aapne.