दिख नहीं रहा
धुन्ध
के उस पार कुछ भी,
पर ‘उस पार’ यकीनन
कुछ न
कुछ सारगर्भित होगा.
भागता
हूँ अन्धाधुन्ध,
पार
करना ही है
यह
धुन्ध,
धुन्ध
फिर भी
उतनी
ही दूरी पर खड़ी
अट्टहास
लगाती रही,
मैं
विभ्रम की अवस्था में
बढ़ता
जा रहा हूँ आगे;
---- और आगे,
उन्हीं
रास्तों को दुहराया;
तो
कभी
खुद
ही से टकराया,
अंततोगत्वा
थक-हार कर
फिर
वहीं लौट आया.
.
महसूसता
हूँ
सूरज
की तपिश बदन पर
पलटकर
देखता हूँ
धुन्ध
छँट चुकी है
11 टिप्पणियां:
द्वंद निरुपण!!
सार्थक प्रस्तूति
बेहद गहनता का समावेश किया है रचना मे ………………हम सभी धुंध के पार जाना चाह्ते हैं मगर पार जा नही पाते……………एक बेहद सशक्त रचना।
और आगे,
"उन्हीं रास्तों को दुहराया;
तो कभी
खुद ही से टकराया,
अंततोगत्वा थक-हार कर
फिर वहीं लौट आया. "...जीवन की नियति की सुन्दर अभिव्यक्ति.. गम्भीर कविता
वर्मा जी बहुत ही सम सामयिक कविता है। आपकी आवाज में भी सुनी । आवाज स्पष्ट और प्रभावशाली है।
एक बात कहनी थी। आपने धुंध को कविता में एक जगह पुर्ल्लिंग रूप में उपयोग किया है और अंत में स्त्रीलिंग रूप में। मेरे हिसाब से तो धुंध स्त्रीलिंग ही होगी। आपकी आवाज में भी कविता का यही रूप है।
महसूसता हूँ
सूरज की तपिश बदन पर
पलटकर देखता हूँ
धुन्ध छँट चुकी है
.--
बहुत सुन्दर रचना है!
आपने इसे स्वर भर कर बहुत बढ़िया लहजे में गाया है!
@ उत्साही जी
साधुवाद आपके सुझाव के लिये
आवश्यक परिवर्तन कर दिया है
धन्यवाद
सुंदर प्रस्तुति।
शानदार रचना ,बधाई ।
bahot achchi lagi.
पढ़ा और फ़िर सुना भी
अदभुत
ताज़ा पोस्ट विरहणी का प्रेम गीत
धुन्ध के उस पार, सुनी . आपकी आवाज़ ने भाव को और गहनता प्रदान कर दी .भटकते और टकराते भी चलना तो पड़ेगा ही ,सूरज के आने तक .
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