शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

धुन्ध के उस पार


दिख नहीं रहा
धुन्ध के उस पार कुछ भी,
पर उस पारयकीनन
कुछ न कुछ सारगर्भित होगा.
भागता हूँ अन्धाधुन्ध,
पार करना ही है
यह धुन्ध,
धुन्ध फिर भी
उतनी ही दूरी पर खड़ी
अट्टहास लगाती रही,
मैं विभ्रम की अवस्था में
बढ़ता जा रहा हूँ आगे;
---- और आगे,
उन्हीं रास्तों को दुहराया;
तो कभी
खुद ही से टकराया,
अंततोगत्वा थक-हार कर
फिर वहीं लौट आया.
.
महसूसता हूँ
सूरज की तपिश बदन पर
पलटकर देखता हूँ

धुन्ध छँट चुकी है

11 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

द्वंद निरुपण!!

सार्थक प्रस्तूति

vandana gupta ने कहा…

बेहद गहनता का समावेश किया है रचना मे ………………हम सभी धुंध के पार जाना चाह्ते हैं मगर पार जा नही पाते……………एक बेहद सशक्त रचना।

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

और आगे,

"उन्हीं रास्तों को दुहराया;

तो कभी

खुद ही से टकराया,

अंततोगत्वा थक-हार कर

फिर वहीं लौट आया. "...जीवन की नियति की सुन्दर अभिव्यक्ति.. गम्भीर कविता

राजेश उत्‍साही ने कहा…

वर्मा जी बहुत ही सम सामयिक कविता है। आपकी आवाज में भी सुनी । आवाज स्‍पष्‍ट और प्रभावशाली है।
एक बात कहनी थी। आपने धुंध को कविता में एक जगह पुर्ल्लिंग रूप में उपयोग किया है और अंत में स्‍त्रीलिंग रूप में। मेरे हिसाब से तो धुंध स्‍त्रीलिंग ही होगी। आपकी आवाज में भी कविता का यही रूप है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

महसूसता हूँ

सूरज की तपिश बदन पर

पलटकर देखता हूँ

धुन्ध छँट चुकी है


.--
बहुत सुन्दर रचना है!
आपने इसे स्वर भर कर बहुत बढ़िया लहजे में गाया है!

M VERMA ने कहा…

@ उत्साही जी
साधुवाद आपके सुझाव के लिये
आवश्यक परिवर्तन कर दिया है
धन्यवाद

मनोज कुमार ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति।

अजय कुमार ने कहा…

शानदार रचना ,बधाई ।

mridula pradhan ने कहा…

bahot achchi lagi.

Girish Billore Mukul ने कहा…

पढ़ा और फ़िर सुना भी
अदभुत
ताज़ा पोस्ट विरहणी का प्रेम गीत

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

धुन्ध के उस पार, सुनी . आपकी आवाज़ ने भाव को और गहनता प्रदान कर दी .भटकते और टकराते भी चलना तो पड़ेगा ही ,सूरज के आने तक .