निज प्रकम्पित अधरों से कुछ कहो आज तुम
अस्फुट-स्वर-बोध करा दो ना चुप रहो आज तुम
साक्षात मगर हो
दिवा-सपन सी
साहचर्य तुम्हारा
पूस-कपन सी
लजायमान स्पर्श-कामना को स्पर्श-बोध चाहिये
कल-कल-निनाद साधों को ना अवरोध चाहिये
बाधित आतुरता के कोमल भाव सहो आज तुम
निज प्रकम्पित अधरों से कुछ कहो आज तुम
भ्रमर गुंजन सी
श्वासों की लहरी
सम्पूर्ण कायनात
शायद है ठहरी
अनकहे सन्देशों ने जब सब कुछ कह डाला है
फिर क्यूँ इन मृद अधरों पर चुप्पी का ताला है
सागर-मिलन को आतुर लहरों सी बहो आज तुम
निज प्रकम्पित अधरों से कुछ कहो आज तुम
12 टिप्पणियां:
आपकी छोटी रचनाएं हमेशा प्राभावित करती रही है ..पढ़ती रही हूँ आपको ...आज पहली बार सुना...बहुत सुकुन भरा विनय लगा साथ मे लगा चित्र लग रहा था अब तो बोलना ही होगा.....आभार...
सुन्दर शब्द संयोजन और भाव सम्प्रेषण.
बहुत आकर्षक
आपकी आम कविताओं से अलग हट कर है ...
मधुर !
आप तो आज बनारस पहुँचने वाले हैं न
फिर तो मिलकर इस कविता पर चर्चा हो जाय !
बहुत सुन्दर
aanand aa gaya .....waah !
uttam kaavya
अनकहे सन्देशों ने जब सब कुछ कह डाला है
फिर क्यूँ इन मृद अधरों पर चुप्पी का ताला है
सागर-मिलन को आतुर लहरों सी बहो आज तुम
बहुत सुन्दर शब्दों में मन के भावों को कहा है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
कोमल भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति।
बहुत भावपूर्ण और संवेदनशील प्रस्तुति ..आभार
बहुत कोमल एवं भावपूर्ण रचना है ! इसे पढ़ कर आनंद आ गया ! अति सुन्दर !
निज प्रकम्पित अधरों से कुछ कहो आज तुम
अस्फुट-स्वर-बोध करा दो ना चुप रहो आज तुम
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रचना पढ़-सुनकर आनन्द आ गया!
बहुत सुन्दर प्रेमाभिव्यक्ति। बधाई।
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