बुधवार, 2 जून 2010

राख झाड़ दो ~~

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चटका लगाकर मूल आकृति में पढ़े : .......................

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24 टिप्‍पणियां:

AKHRAN DA VANZARA ने कहा…

बहुत खूब ...!!!!

मिलकर रहिए ने कहा…

कुडि़यों से चिकने आपके गाल लाल हैं सर और भोली आपकी मूरत है http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/06/blog-post.html जूनियर ब्‍लोगर ऐसोसिएशन को बनने से पहले ही सेलीब्रेट करने की खुशी में नीशू तिवारी सर के दाहिने हाथ मिथिलेश दुबे सर को समर्पित कविता का आनंद लीजिए।

वाणी गीत ने कहा…

बोरसी की बुझती आग में छिपी आंच राख झाड़ते ही तीव्र हो उठेगी ...यादों की धुन्ध हटा दे तो तस्वीरें साफ़ नजर आने लगती हैं जैसे ..
आकर्षक प्रस्तुति ...!!

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा...ब्स, तुम उसे जमीन दे दो..काश!! इतना कर देते लोग!

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

उस बीज के अंदर गगनचुंबी दरख्त है।

बहुत सुंदर वर्मा जी

आपके इस ब्लाग में दो पॉपअप विंडो खुल रही हैं
आपने कहीं से कोई विजेट लगाया है जो विज्ञापन दे रहा है। देखिए, यह समस्या मेरे ब्लाग पर भी हो गयी थी।

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

सुंदर भावनाओं का प्रवाह...खूबसूरत क्षणिकाएँ.....धन्यवाद वर्मा जी

Razia ने कहा…

बहुत सुन्दर क्षणिकाएँ

संजय भास्‍कर ने कहा…

खूबसूरत क्षणिकाएँ.....धन्यवाद वर्मा जी

Shekhar Kumawat ने कहा…

bahut sundar


badhai aao ko is ke liye

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

तीनों खानिकाएं बहुत बढ़िया हैं....बीज के अंदर गगनचुम्बी दरख्त..बस ज़मीन चाहिए...बहुत प्रभावशाली...

सुरेश शर्मा (कार्टूनिस्ट) ने कहा…

काश ! मैं भी कवि होता और मुझे भी भावनाओं को कागज पर उतारना आता..! सच कहूँ तो मुझे जलन होती है..मैं कार्टूनिस्ट क्यों बना..कवि क्यों नहीं बना..? आपकी इस रचना को मैंने कॉपी-पेस्ट कर लिया है, अपने ब्लॉग पर गुलदस्ते की तरह सजाऊंगा !

honesty project democracy ने कहा…

सर्वोत्तम ....

दिलीप ने कहा…

waah sir lajawaab kavita hai...

Jyoti ने कहा…

बहुत सुंदर क्षणिकाएँ.....

vandana gupta ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव भरे है.

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

teeno para ....ek ishara bhar hain ...warna inka kathya is likhe se jyada hai .... bahut pasand aayi aap ki rachana ...:)

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

बहुत उम्दा !

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

दिल को छू गयी आपकी रचना, बधाई।
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क्या आप जवान रहना चाहते हैं?
ढ़ाक कहो टेसू कहो या फिर कहो पलाश...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत ही मनभावन और सुन्दर रचना!

Ra ने कहा…

उस बीज के अंदर गगनचुंबी दरख्त है। ...बहुत खूब ...!!!!बहुत सुंदर वर्मा जी

राजकुमार सोनी ने कहा…

बस उसे जमीन दे दो।
क्या बात है वर्मा साहब। दिमाग की बत्ती जल गई।
जमीन ही देने का काम तो आदमी नहीं कर पा रहा है। आदमी न अपनी जमीन देता है और न अपनी जमीन पहचानता है।

nilesh mathur ने कहा…

बहुत ही सुन्दर!

दीपक 'मशाल' ने कहा…

घुमावदार कविता हैं पर भाव स्पष्ट हैं..

hem pandey ने कहा…

अच्छा लगा यह आशावाद.