मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

शायद हम बन जायें कालिदास ~~


अलाव जलाने को कहकर
'प्रतिकार' का स्वर लिये
वह गया था अन्दर,
और फिर
स्वीकार का स्वर लेकर
बाहर आया;
अलाव जल नहीं पाई तब तक
लकड़ियाँ सिली हुई थी.
*
हम -
सवालों के ऊँटपटाँग जवाब देकर
लगाये रहते हैं यह आस
कि शायद
कोई मिल जाये अर्थ ढूँढ़ने वाला
और हम बन जायें
कालिदास.


4 टिप्‍पणियां:

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

rachna pooori tarah nahi samjh aayi verma sir .. :(

han doosra hissa samjh aaya ..lazawaab laga

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अच्छा हुआ लकडियाँ सीली हुई थीं ..सब कुछ नहीं जला ...

सच है आज सब कालिदास बनने को तैयार बैठे हैं :):)

अच्छी प्रस्तुति

vandana gupta ने कहा…

अलाव जल नहीं पाई तब तक लकड़ियाँ सिली हुई थी.

दोनो ही रचनायें बेहतरीन हैं।

निर्मला कपिला ने कहा…

दोनो ही रचनायें सुन्दर गहरी भाववाभिव्यक्ति। शुभकामनायें।