सोमवार, 10 जनवरी 2011

ठूँठ .... (लघुकथा)

वह अधमरा सा था. उठ भी तो नहीं सकता था. पेड़ की टहनियों को देखा नहीं गया, वे झुककर उसे हवा करने लगीं. उसे श्वास लेने में परेशानी महसूस हो रही थी. पेड़ ने उसके लिये निर्धारित से ज्यादा आक्सीजन का उत्पादन और आपूर्ति किया. .. शायद वह भूखा था, पेड़ ने अपने फलों को खुद से विलग कर उसे परोस दिया. उसके शरीर में थोड़ी हलचल हुई ... वह अब उठकर बैठ गया. ठंडी हवाओं ने, पेड़ की छाँव ने, सुस्वादु फलों ने उसे पुनर्जीवित कर दिया. वह स्वस्थ होकर इधर उधर विचरण करने लगा. अब उसे झोपड़ी की आवश्यकता हुई. उसने पेड़ की शाखों को काटकर उससे झोपड़ी बना लिया. फलों को तोड़कर बाजार में बेच दिया. कुछ ही दिनों में उसे झोपड़ी छोटी लगने लगी. अब उसे मकान की आवश्यकता हुई. उसने मकान बनाने के लिये पेड़ के तने को काट दिया. अकस्मात उसे श्वास लेने में परेशानी हुई. वह आक्सीजन का मास्क पहनकर आजकल उस पेड़ के जड़ को खोदने में व्यस्त है, शायद मकान के साज सज्जा में उन जड़ों की आवश्यकता थी और फिर तने के बिना जड़ ठूँठ सा खड़ा था उसके मकान के सामने ........

11 टिप्‍पणियां:

शरद कोकास ने कहा…

यह ठूँठ ही है जिसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आद. वर्मा जी,

कमाल का व्यंग्य लिखा है आपने !

नुकीली पेन्सिल की तरह चुभ गयी !

-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

बेनामी ने कहा…

सुन्दर पोस्ट!
बिल्कुल सटीक!

anshumala ने कहा…

वाह, बहुत ही अच्छी लगी पोस्ट |

Razia ने कहा…

सुन्दर व्यंग्य ...

vandana gupta ने कहा…

बेहद गहन और सटीक्।

palash ने कहा…

आज हमारे समाज में बडे बुजुर्ग भी अपने आप को ठूँठ बनता देखने का दंश झेल रहे हैं ।
बहुत गहरा संदेश दीए है आपकी रचना ।
काश लोग समय रहते सीख ले ।
वरना आज का पौधा(युवा)भी कल ठूँठ बन सकता है ।

Neeraj ने कहा…

काश , ये बात लोग समझ पाते

Learn By Watch ने कहा…

प्रिय,

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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क्या कहूँ इसे :
— संवेदना जगाने वाली एक सम्पूर्ण लघु कथा.
— स्वार्थ को परिभाषित करता एक परोक्ष आघात. अथवा
— 'कालीदास के डाल पर बैठकर उसी डाल को काटने' का नया वर्जन.

...... इसे ही कहते हैं 'स्वार्थ की पराकाष्ठा' जो आपने 'ठूँठ' कथा द्वारा बतायी.
आगे उदाहरण देने में काम आयेगी यह कथा.

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मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

आदरणीय वर्मा साहब,

पेड़ के ठूंठ बनने की प्रक्रिया से गुजरते हुये केवल आदमी का निर्मम और मतलबी चेहरा ही सामने आया। शायद पेड़ों की दाता बनने रहने की प्रवृत्ती ही आज उनके निर्मूलन के लिये दोषी है। काश कि पेड़ भी निर्मम हो पाते.......

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी