अलाव जलाने को कहकर
'प्रतिकार' का
स्वर लिये
वह
गया था अन्दर,
और
फिर
स्वीकार
का स्वर लेकर
बाहर
आया;
अलाव
जल नहीं पाई तब तक
लकड़ियाँ
सिली हुई थी.
*
हम -
सवालों
के ऊँटपटाँग जवाब देकर
लगाये
रहते हैं यह आस
कि
शायद
कोई
मिल जाये अर्थ ढूँढ़ने वाला
और हम
बन जायें
कालिदास.
4 टिप्पणियां:
rachna pooori tarah nahi samjh aayi verma sir .. :(
han doosra hissa samjh aaya ..lazawaab laga
अच्छा हुआ लकडियाँ सीली हुई थीं ..सब कुछ नहीं जला ...
सच है आज सब कालिदास बनने को तैयार बैठे हैं :):)
अच्छी प्रस्तुति
अलाव जल नहीं पाई तब तक लकड़ियाँ सिली हुई थी.
दोनो ही रचनायें बेहतरीन हैं।
दोनो ही रचनायें सुन्दर गहरी भाववाभिव्यक्ति। शुभकामनायें।
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