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रविवार, 26 जुलाई 2009

ख़त फ़िर मेरे हाथ में है --


एक ख़त
जो लिखा था
मैंने तुम्हे कभी
वो ख़त आज फिर
मेरे हाथ में है
ख़त लिखकर
छा गया था
दिलो-दिमाग पर
बेइंतिहा सुरूर
शायद मन में था
कहीं न कहीं
तुम्हे ख़त लिखने पर गुरूर
मुझे याद है उस दिन
ख़त लिखकर
ख़त को अनायास मैंने
चूम लिया था
इतना हल्का हो गया था कि
ख़ुद का भी भान नहीं था
लिफाफे पर क्या लिखूं
इसका भी ध्यान नहीं था
लिफाफे को मैंने
एहसास से सजाया था
पर गलती से
तुम्हारे पते की जगह
ख़ुद का पता लिख आया था
और आज जब
डाकिया ख़त लाया तो --
.
एक ख़त
जो लिखा था
मैंने तुम्हे कभी
वो ख़त आज फिर
मेरे हाथ में है

शनिवार, 18 जुलाई 2009

माँ एहसास है --


माँ एक शब्द नहीं
एहसास है
एक अटूट रिश्ता;
एक विश्वास है
कभी देखना गौर से
बच्चे के लिये
स्वेटर बुनते हुए उसे
ऊन को जब वह
तीलियो से उलझाती है
अपने मन की अनगिनत गांठ
खोलती है; सुलझाती है
लोरियां गाती है
सारी रात नहीं सोती है
पर बच्चे की पलकों पर
सपन बोती है
कितना बेफिक्र होता है बच्चा
जब माँ आसपास है
माँ एक शब्द नहीं ---
बच्चा जब संत्रास में होता है
अधबने मकान सा
माँ ढह जाती है
बच्चे के आंसुओं संग
खुद ही बह जाती है
ममतामयी माँ तो
अमलतास है
माँ एक शब्द नहीं
एहसास है
एक अटूट रिश्ता;
एक विश्वास है

.

रविवार, 5 जुलाई 2009

तलाश जलते तवे की ----!!


जलते तवे पर
एक बूँद सा मैं जला.
पलांश में आया
भयानक जलजला
और मैं,
भाप बनकर उड़ चला
शायद दिल में हसरत थी
बादल बनने की;
तुम्हारे छत पर
चादर सा तनने की
भीगो देना चाहता था
तुम्हारा छत;
बरसना चाहता था
अनवरत
तुम जहां आकर
गुनगुनाती हो
हर बारिश के साथ
भीग जाती हो.
पर शायद
वायुदाब की कमी थी
या शायद
मेरे अन्दर ‘आब’ की कमी थी
बादल नहीं बन पाया
तरसता रह गया बरसने को

आज फिर अपने अन्दर
और अधिक आब इकट्ठा करके
किसी जलते तवे को तलाश रहा हूँ
तय है कि एकदिन मैं
बादल बनूंगा
बरसूंगा तुम्हारे छ्त पर
मैं सावन ----

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

एक कबूतर दब गया था ----


तुमने कहा --
रूको, मत जाओ
मैनें समझा --
रूको मत, जाओ
और मैं
चुपचाप चला आया था -- उस दिन
बिना किसी शोर
बिना किसी तूफान
कितना भयानक
ज़लज़ला आया था -- उस दिन
काश !
तुमने देखा होता
चट्टान का खिसकना
काश !
तुमने भी देखा होता
वह मंजर
जब एक मकान
ढहा था अधबना
और
उड़ने को आतुर एक कबूतर
दब गया था
शायद यह --
‘वैयाकरण’ की साजिश थी

मंगलवार, 30 जून 2009

चार दुधमुहे बच्चे मरे हैं ---


ये आग जो लगी है
जल्दी काबू कर ली जाती
पर क्या करें सभी कर्मचारी अभी तक तो
पिछली लगी आग को ही बुझा रहे हैं
वे तो बहुत मसरूफ हैं
आग फ़िर न लगे इसके उपाय सुझा रहे हैं
और फ़िर
इतनी बड़ी आग पर जल्दी काबू पाना भी
आग की तौहीन है
आग तो आग है
इसका क्या!
यह कभी लग जाती है
तो कभी लगाई जाती है
इसी तरह तो
सोती कौम जगाई जाती है
गनीमत है कि हादसा बड़ा नहीं हुआ
अब तक कोई मुद्दा खड़ा नहीं हुआ
क्या कहा 'कैजुअल्टी' ?
अरे! वह तो न के बराबर है
सिर्फ़ चार दुधमुहे बच्चे मरे हैं
बाकी सब पहले भी अधमरे थे
आज भी अधमरे हैं
एक झोपडी में सो रहा
उसका बाप मारा है
मैं तो कहता हूँ
सिसक-सिसक कर जी रहा था
यूँ समझो कोई पाप मारा है
वह जो कोने में बैठी है चुपचाप
अरे वही
जो अधजली चुनर से लिपटी है
जी हाँ !
जिसकी पिछले महीने शादी हुई थी
उसका निठल्ला पति मरा है
बाकी सब ठीक है
माहौल बस डरा-डरा है
.
अजी! आग अभी बुझाये कैसे
अभी 'उनको' भी आना है
आग बुझाने का उद्घाटन तो
उन्हीं से करवाना है
वे आते ही कम्बल बाटेंगे
आश्वासन और संबल बाटेंगे
ये कितने खुशकिस्मत हैं
इन्हे तो 'लाइव' दिखाया जाएगा
आग के बीच दम तोड़ता
इनका 'लाइफ' दिखाया जाएगा
वो जिंदा ही कहाँ था
जो अभी-अभी मरा है
माहौल बस डरा-डरा है
माहौल बस -----

रविवार, 28 जून 2009

परिभाषाओं की बही -----


कुछ भी करिए
सब सही है
देखते नहीं मेरे हाथ में
परिभाषाओं की बही है!
मेरे अपने जब करते हैं तो
बलात्कार को भी मैं
'स्वीकार' लिखता हूँ
किसी और के लिए तो
गुफ्तगू को भी मैं
'अनाचार' लिखता हूँ
सच के खिलाफ पल में
झूठ की गवाही दिला देता हूँ
जानता हूँ इस तथ्य को कि
सच के पक्ष में
कोई सच खड़ा नहीं होगा
आदमकद झूठ के कद से
सच का कद बड़ा नहीं होगा
तुम बेफिक्र रहो
मेरी जिरह से तो
सच 'सच' को भी पहचानने से
मना कर देगा
हैवानियत पल में
इंसानियत को
फ़ना कर देगा
कुछ इस तरह मैं
जीवन का सार लिखूंगा
जरूरत पड़ने पर कलम को
संहारक हथियार लिखूंगा
बेखौफ रहिए
सब सही है
जब तक मेरे हाथ में
परिभाषाओं की बही है -----

गुरुवार, 25 जून 2009

भुगती हुई अंतर्कथा ----


नज़्म सी नाज़ुक
एहसास की टहनी झुकी
विश्वास न जाने क्यूँ
देहरी तक आकर रुकी
भीड़ में ठिठकी हुई
नीड़ की व्यथा
मानवीय संत्रास की
भुगती हुई अंतर्कथा ----
.
अश्क का कुहराम
नयन में आठो पहर
जीजिविषा - संग्राम
शयन में आठो पहर
पहचान सर उठाते नहीं
सागर सा मथा
मानवीय संत्रास की
भुगती हुई अंतर्कथा ----
.
सूक्ष्म संबल हो गया
शहर ये चंबल हो गया
आत्मविश्वास मानो
गरीब का कंबल हो गया
क्लांत परिवेश जैसे
तथागत की 'तथा'
मानवीय संत्रास की
भुगती हुई अंतर्कथा ----